
डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट: अब न कलम चलेगी, न सच बोलेगा – वरना जेल या 500 करोड़ का जुर्माना…!
@विजय विनीत
केंद्र सरकार कह रही है कि यह कानून आपके डेटा की सुरक्षा के लिए है, लेकिन पत्रकार कह रहे हैं कि यह कानून सच पर पहरा लगाने के लिए है। डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (DPDP) एक्ट के नाम पर सरकार ने एक ऐसा हथौड़ा तैयार किया है, जो निष्पक्ष पत्रकारिता की खोपड़ी पर सीधे वार करेगा। इस कानून के तहत, अगर कोई पत्रकार किसी प्रभावशाली व्यक्ति की सच्चाई उजागर करता है, तो 250 करोड़ रुपये तक का जुर्माना झेलने को तैयार रहे—और अगर सरकार का मूड बिगड़ गया, तो यह रकम बढ़कर 500 करोड़ रुपये हो सकती है! अगर पैसा नहीं चुकाया, तो सलाखों के पीछे जिंदगी सड़ने के लिए तैयार रहिए।
मान लीजिए, किसी बड़े उद्योगपति का हजारों करोड़ का कर्ज माफ हो जाता है, और आप इसे उजागर करना चाहते हैं—सॉरी ! यह “व्यक्तिगत डेटा” है। किसी मंत्री के दामाद को सरकारी ठेका मिल जाता है, और आप इसका पर्दाफाश करना चाहते हैं—रुक जाइए! यह भी “व्यक्तिगत सूचना” है। किसी भ्रष्ट अफसर की काली कमाई के बारे में लिखना चाहते हैं—खतरा मोल मत लीजिए! यह भी कानून के दायरे में आ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि सार्वजनिक हित में जानकारी मांगना जनता का अधिकार है। लेकिन इस एक्ट के बाद सरकार किसी भी जानकारी को “व्यक्तिगत” बताकर उसे छिपा सकती है। यानी सरकार का भ्रष्टाचार हो, घोटाले हों, लोन माफी हो या चुनावी बॉन्ड का खेल—सब पर परदा डालने का पूरा इंतजाम कर दिया गया है।
पत्रकारिता पर ताला लगाने की तैयारी?
इस कानून के तहत “डाटा फिडिशरी” नामक एक नई व्यवस्था लाई जा रही है, जो डेटा को इकट्ठा करने, प्रोसेस करने और प्रकाशित करने वालों को कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराएगी। इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई पत्रकार किसी घोटाले से जुड़ी रिपोर्ट प्रकाशित करता है, जिसमें किसी सरकारी अधिकारी या उद्योगपति का नाम आता है, तो उसे पहले उस व्यक्ति की लिखित अनुमति लेनी होगी। क्या कोई भ्रष्ट नेता या अधिकारी यह अनुमति देने वाला है?
इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी रिपोर्टिंग भी इस कानून के दायरे में आ सकती है। जब पत्रकारों को नाम प्रकाशित करने से पहले अनुमति लेनी होगी, तो भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और सत्ता से जुड़े संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग करना लगभग असंभव हो जाएगा।
यदि किसी पत्रकार ने किसी जज, नेता, अफसर या उद्योगपति की संपत्ति, भ्रष्टाचार या किसी अन्य संवेदनशील विषय पर रिपोर्ट प्रकाशित की और उस व्यक्ति ने इसकी अनुमति नहीं दी, तो पत्रकार पर सीधा 250 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है। यह जुर्माना न भरने पर 500 करोड़ रुपये तक बढ़ सकता है।
अब सवाल उठता है कि क्या एक स्वतंत्र पत्रकार, रिसर्चर या यूट्यूबर इतने भारी-भरकम जुर्माने को चुका सकता है? यह कानून पत्रकारिता को खत्म करने का एक सोचा-समझा प्रयास प्रतीत होता है।
सरकार को हर जानकारी चाहिए, पर जवाबदेही नहीं
DPDP कानून के तहत पत्रकारों को उनके कार्यों के लिए कोई विशेष छूट नहीं दी गई है। इस कानून का असर उन पत्रकारों पर भी पड़ेगा, जो डिजिटल स्पेस में मौजूद सूचनाओं का उपयोग करके रिपोर्टिंग करते हैं। इससे पत्रकारों के लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र रिपोर्टिंग करना और अधिक कठिन हो जाएगा।
2017 में, जब राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार थी, तब एक विधेयक लाया गया था, जिसके तहत किसी भी सेवानिवृत्त या सेवारत न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोकसेवक से जुड़ी खबर प्रकाशित करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी आवश्यक थी। यह विधेयक बाद में निरस्त कर दिया गया था। अब सवाल यह उठता है कि क्या डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट के जरिए उसी अधूरे प्रयास को पूरा किया जा रहा है?
सरकार के पास नागरिकों की हर जानकारी होती है। वह सुरक्षा के नाम पर और भी सूचनाएं जुटा सकती है। लेकिन जब नागरिक अपनी सरकार से कोई जानकारी मांगते हैं, तो उसे “व्यक्तिगत” बताकर देने से इनकार कर दिया जाता है।
2005 में सूचना का अधिकार (RTI) कानून लागू हुआ था, जिससे पारदर्शिता बढ़ी। लेकिन यदि DPDP कानून पूरी तरह लागू हो गया, तो RTI और पत्रकारिता की रीढ़ ही टूट जाएगी। यह कानून नागरिकों की आंखों पर पट्टी बांधने और सच को दबाने का सबसे बड़ा हथियार साबित हो सकता है।
आखिर डर किसे लग रहा है?
इस कानून के कारण पत्रकारिता के क्षेत्र में नए संकट उत्पन्न होंगे। यह सिर्फ व्यक्तिगत डेटा सुरक्षा का मामला नहीं है, बल्कि प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिकों के सूचना के अधिकार पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। यह सवाल उठता है कि क्या सरकार इस कानून का उपयोग पत्रकारों पर शिकंजा कसने के लिए करेगी, या फिर इसमें संशोधन किए जाएंगे ताकि स्वतंत्र पत्रकारिता को सुरक्षित रखा जा सके?
अगर सरकार पारदर्शिता में यकीन करती है, तो फिर पत्रकारों पर ऐसे प्रतिबंध क्यों? क्या ये कानून जनता के हित के लिए है, या फिर सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों की सुरक्षा के लिए? क्या सच बोलना अब जुर्म होगा? क्या सवाल पूछना अब गुनाह होगा? अगर हां, तो फिर लोकतंत्र की अर्थी उठने में ज्यादा देर नहीं लगेगी!
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