
‘वंदे मातरम’ पर प्रधानमंत्री का बयान — इतिहास से छेड़छाड़ या राजनीतिक अवसरवाद?
नई दिल्ली।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान से बड़ा विवाद खड़ा हो गया है कि “साम्प्रदायिकता के चलते वंदे मातरम का पूरा गीत नहीं लिया गया।”
लेकिन इतिहास के दस्तावेज़ इस दावे को झूठा सिद्ध करते हैं।
वास्तविकता यह है कि ‘वंदे मातरम’ को सीमित रूप में अपनाना धार्मिक नहीं, राष्ट्रीय एकता का निर्णय था —
जबकि संघ और हिंदू महासभा ने इस गीत का विरोध कर अंग्रेज़ों की नीति को ही मजबूत किया।
बंकिम चंद्र ने ही तय किया था स्वरूप
‘वंदे मातरम’ के रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी स्वयं यह मानते थे कि गीत के प्रथम दो पद ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार्य हों,
क्योंकि वे मातृभूमि की आराधना करते हैं —
“वंदे मातरम्, सुजलां सुफलां, मलयजशीतलाम्…”
इन पदों में भारत माता की छवि है, देवी की नहीं।
गीत के बाद के पदों में देवी दुर्गा की आराधना है, जो धार्मिक भावना का हिस्सा है।
इसी कारण, बंकिम चंद्र और बाद में कांग्रेस ने मिलकर प्रथम दो पदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में मान्यता दी — ताकि सभी धर्मों के लोग समान रूप से इसे अपना सकें।
संघ और हिंदू महासभा का अंग्रेज़ समर्थक रवैया
इतिहासकारों के अनुसार, जब ‘वंदे मातरम’ कांग्रेस के अधिवेशनों और आज़ादी की सभाओं में गूंजने लगा,
तो 1925 में गठित आरएसएस और हिंदू महासभा ने इसका बहिष्कार कर दिया।
उन्हें भय था कि इस गीत से कांग्रेस जनमानस में लोकप्रिय हो रही है।
इतना ही नहीं —
इन्हीं संगठनों ने अंग्रेज़ी शासन से अनुरोध किया था कि वह ‘वंदे मातरम’ और ‘जन गण मन’ पर प्रतिबंध लगाए,
क्योंकि ये गीत जनता में स्वतंत्रता की चेतना फैला रहे थे।
ब्रिटिश सरकार, जो हिंदू महासभा और संघ के नेताओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया रखती थी,
ने उनके अनुरोध पर इन गीतों के सार्वजनिक गायन पर कई स्थानों पर प्रतिबंध लगाया।
यह तथ्य उस समय के ब्रिटिश अभिलेखों और कांग्रेस के दस्तावेज़ों में स्पष्ट रूप से दर्ज है।
संघ का राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत से पुराना विरोध
स्वतंत्रता से पहले और लंबे समय तक स्वतंत्रता के बाद भी संघ के शाखा आयोजनों में न तो ‘वंदे मातरम’ गाया जाता था, न ‘जन गण मन’।
इन गीतों को “राजनीतिक” बताकर संघ ने उनसे दूरी बनाए रखी।
विडंबना यह है कि आज वही संगठन और उसकी राजनीतिक धारा राष्ट्रवाद का एकमात्र ठेकेदार बनने की कोशिश कर रही है।
स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रगौरव
जब गांधी, नेताजी सुभाष बोस, नेहरू, पटेल, लाला लाजपत राय और भगत सिंह जैसे नेता
“वंदे मातरम” को अपने संघर्ष का नारा बना रहे थे,
तब संघ और हिंदू महासभा अंग्रेज़ों से सौहार्द की नीति चला रहे थे।
गांधीजी ने कहा था —
“वंदे मातरम भारत की आत्मा है, इसे किसी धर्म की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।”
प्रधानमंत्री का बयान और इतिहास की अनदेखी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना कि “साम्प्रदायिकता के कारण पूरा वंदे मातरम नहीं लिया गया”
वास्तव में इतिहास का विकृतिकरण है।
यह निर्णय न साम्प्रदायिक था, न विभाजनकारी —
बल्कि भारत की सांस्कृतिक विविधता और समावेशी भावना को सम्मान देने का कदम था।
अवध भूमि विश्लेषण
- ‘वंदे मातरम’ के पहले दो पद मातृभूमि की आराधना हैं, देवी की नहीं।
- बंकिम चंद्र ने स्वयं यही दो पद राष्ट्रीय गीत के रूप में मानने का आग्रह किया था।
- कांग्रेस ने इस गीत को राष्ट्रीय प्रतीक बनाया, जबकि संघ और हिंदू महासभा ने इसका बहिष्कार किया।
- इन्हीं संगठनों ने अंग्रेजों के प्रति वफादारी निभाते हुए राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान पर प्रतिबंध लगवाया।
जो संगठन स्वतंत्रता संग्राम के विरोध में खड़ा रहा,
अंग्रेजों की नीति से सहमत रहा,
और जिसने कभी राष्ट्रगान तक नहीं गाया —
क्या ऐसे लोगों को आज “वंदे मातरम” पर बोलने का नैतिक अधिकार है?
‘वंदे मातरम’ भारत माता की आवाज़ है,
न किसी पार्टी की, न किसी संगठन की संपत्ति।
इसे राजनीति की कसौटी पर नहीं, राष्ट्र की आत्मा के रूप में देखा जाना चाहिए।




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