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संरक्षण बनाम कार्रवाई: किसे बचाया गया, किसे बनाया गया बलि का बकरा?

इस पूरे 35 करोड़ की टैक्स चोरी प्रकरण में कार्रवाई और संरक्षण का पैटर्न अब खुलकर सामने आ रहा है।
सूत्रों के मुताबिक, जिन अधिकारियों की भूमिका इस मामले में निर्णायक और प्रभावशाली पदों पर रही, उन्हें न सिर्फ कार्रवाई से बचाया गया, बल्कि प्रमुख सचिव और आबकारी आयुक्त स्तर से संरक्षण भी मिला।

इनमें

  • तत्कालीन डिप्टी एक्साइज कमिश्नर वाराणसी, वर्तमान में जॉइंट एक्साइज कमिश्नर मेरठ एवं अतिरिक्त प्रभार लखनऊ — दिलीप मणि त्रिपाठी,
  • बदायूं के तत्कालीन जिला आबकारी अधिकारी, वर्तमान में प्रयागराज के जिला आबकारी अधिकारी — सुशील मिश्रा,
  • जौनपुर के तत्कालीन जिला आबकारी अधिकारी — घनश्याम मिश्रा,
  • तथा लखनऊ के तत्कालीन डिप्टी एक्साइज कमिश्नर जैनेंद्र उपाध्याय,
    शामिल बताए जाते हैं।

हैरानी की बात यह है कि जैनेंद्र उपाध्याय को इस पूरे विवाद के बावजूद पदोन्नति देकर जॉइंट एक्साइज कमिश्नर बनाया गया, और वे अब सेवानिवृत्त भी हो चुके हैं, जबकि उनके कार्यकाल से जुड़े सवाल आज भी अनुत्तरित हैं।

सूत्र बताते हैं कि इन अधिकारियों को न केवल जांच के दायरे से बाहर रखा गया, बल्कि मलाईदार पोस्टिंग भी दी गई। इसके उलट, अब तक जिन अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई हुई है, उनमें से अधिकांश दलित और पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं

चयनात्मक कार्रवाई या संस्थागत भेदभाव?

अवध भूमि न्यूज़ यह सवाल उठाता है कि

  • क्या मेंटोर पोर्टल की एक्सेस,
  • फर्जी गेट पास,
  • और करोड़ों की बिना ड्यूटी शराब बिक्री
    जैसे मामलों में केवल निचले या सीमित अधिकार वाले अधिकारियों की ही भूमिका हो सकती है?

यदि निर्णय, तकनीकी नियंत्रण और निगरानी का अधिकार वरिष्ठ अधिकारियों के पास था,
तो फिर कार्रवाई का दायरा एक खास वर्ग तक ही सीमित क्यों रखा गया?

यह मामला अब सिर्फ आबकारी घोटाले का नहीं रहा,
बल्कि प्रशासनिक संरक्षण, पदोन्नति के खेल और चयनात्मक न्याय का प्रतीक बनता जा रहा है।

सबसे बड़ा सवाल यही है—
क्या 35 करोड़ की टैक्स चोरी में वाकई सिर्फ वही दोषी हैं,
जिन पर कार्रवाई हुई,
या फिर असली चेहरे अब भी फाइलों और पदों की आड़ में सुरक्षित हैं?


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