
सवाल: दोस्ती का नाटक या कूटनीति की मजबूरी?
1. दो मोर्चों पर संकट
- एक तरफ भारत ने “ऑपरेशन सिंदूर” के जरिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंक पर सीधी चोट मारी।
- दूसरी तरफ अब वही भारत रूस में SCO सैन्य अभ्यास में पाकिस्तान के साथ मैदान में उतरता दिख सकता है।
यानी आतंकवाद पर जीरो टॉलरेंस का दावा और उसी मुल्क की सेना के साथ “ड्रिल” — यह कूटनीतिक विरोधाभास है, जिसे विपक्ष हथियार बनाएगा।
रूस में भारत–पाक आमने-सामने?
2. मोदी सरकार पर राजनीतिक असर
- विपक्ष पहले ही सरकार पर आरोप लगा रहा है कि चीन को LAC पर सख़्त जवाब नहीं दे पा रहे, और अब पाकिस्तान के साथ एक ही मंच पर सैन्य अभ्यास से “दुश्मनी का दिखावा” वाला नैरेटिव और मजबूत होगा।
- ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को मिल रही तालियां इसी मुद्दे पर सवालों में बदल सकती हैं: “जब दुश्मन पर वार किया, तो अब दोस्ती क्यों?”
- सरकार की सफाई यह होगी कि यह द्विपक्षीय नहीं, बहुपक्षीय (SCO) मंच है। मगर पब्लिक पर्सेप्शन में यह लाइन कमजोर पड़ती है — क्योंकि तस्वीरों में “भारतीय और पाकिस्तानी सैनिक साथ-साथ” ही दिखेंगे।
3. कूटनीतिक गणित
- रूस: यूक्रेन युद्ध के बीच रूस चाहता है कि भारत और पाकिस्तान दोनों उसकी छतरी में रहें। भारत ऊर्जा व हथियारों के लिए रूस पर निर्भर है, इसीलिए SCO अभ्यास को नकारना मुश्किल है।
- चीन: SCO का असली आर्किटेक्ट चीन है। वह यही चाहता है कि भारत पाकिस्तान के बराबर दिखे और दक्षिण एशिया में “दोनों को बराबर तौलने” का मैसेज जाए।
- अमेरिका: ठीक इन्हीं दिनों भारत अमेरिका के साथ अलास्का में ‘युद्ध अभ्यास’ कर रहा है। यानी भारत बैलेंस साध रहा है — मगर यह बैलेंस कहीं-कहीं पब्लिक इमेज में “भटकाव” भी बन जाता है।
4. रणनीतिक सिग्नल
- भारत का असली मकसद SCO में रहकर काउंटर-टेररिज़्म एजेंडा कंट्रोल करना है, ताकि पाकिस्तान और चीन का नैरेटिव वहां हावी न हो।
- मगर जोखिम यही है कि “दुश्मन के साथ मंच साझा करना” जनता को समझाना सबसे मुश्किल काम है।
5. बड़ा सवाल
- क्या मोदी सरकार SCO की ड्रिल को “डिप्लोमैटिक कर्तव्य” बताकर निकल जाएगी?
- या फिर विपक्ष इसे “ऑपरेशन सिंदूर के बाद ढोंग” कहकर बड़ा मुद्दा बना देगा?
- और सबसे अहम — क्या भारत अब सचमुच रूस-चीन की धुरी और अमेरिका की साझेदारी के बीच फंसता जा रहा है?
👉 निचोड़:
भारत कूटनीतिक बैलेंसिंग कर रहा है — मगर यह बैलेंस जब तस्वीरों में भारत-पाक सैनिक साथ दिखते हैं, तब राजनीतिक बोझ में बदल जाता है। सवाल साफ है — क्या मोदी सरकार “स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी” समझा पाएगी, या फिर इसे जनता सिर्फ “दुश्मन से दोस्ती” मान लेगी?
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