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बिहार चुनाव के बाद बिकेंगे कई सरकारी बैंक और सरकारी कंपनियां:


सरकार के निजीकरण एजेंडे पर सवाल

सरकार एक बार फिर “निजीकरण की राह” पर आगे बढ़ रही है और अब लगभग आधा दर्जन सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने की तैयारी कर रही है। CNBC-TV18 की रिपोर्ट के अनुसार निवेश सचिव अरुणीश चावला ने इसकी पुष्टि की है। हालांकि किन कंपनियों में हिस्सेदारी बेची जाएगी, इस पर पर्दा डाला गया है। वहीं रॉयटर्स के हवाले से खबर है कि सरकार पांच सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी बेचने की योजना बना रही है, जिनमें यूको बैंक और बैंक ऑफ महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण संस्थान शामिल हैं।

यह कदम कई गंभीर सवाल खड़े करता है:

  1. जनता की पूंजी पर चोट
    सरकारी कंपनियां और बैंक सिर्फ कारोबार नहीं करते, बल्कि जनता की गाढ़ी कमाई और विश्वास का प्रतीक होते हैं। इनकी हिस्सेदारी बेचकर सरकार सीधे-सीधे जनता की पूंजी को निजी हाथों में सौंप रही है।
  2. पारदर्शिता की कमी
    निवेश सचिव ने जिन कंपनियों की हिस्सेदारी बेचने की बात कही, उनका नाम तक स्पष्ट नहीं किया गया। यह दिखाता है कि सरकार संवेदनशील आर्थिक फैसलों पर भी जनता और संसद को भरोसे में लेने से बच रही है।
  3. ‘बेचो भारत’ नीति की निरंतरता
    पिछले कुछ सालों से सरकार लगातार रणनीतिक बिक्री, विनिवेश और निजीकरण के नाम पर देश की सार्वजनिक संपत्तियों को बेचती चली आ रही है। एयर इंडिया से लेकर एलआईसी तक के उदाहरण जनता के सामने हैं। अब बैंकों को बेचने की योजना यह साबित करती है कि “आत्मनिर्भर भारत” का नारा सिर्फ दिखावा है।
  4. छोटे बैंकों पर खतरा
    यूको बैंक और बैंक ऑफ महाराष्ट्र जैसे छोटे लेकिन महत्वपूर्ण सरकारी बैंक ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में करोड़ों आम लोगों की जीवनरेखा हैं। इनकी हिस्सेदारी बेचने से इनकी सामाजिक जिम्मेदारियां कम होंगी और मुनाफाखोरी की होड़ बढ़ेगी।
  5. रोज़गार पर संकट
    निजीकरण की प्रक्रिया हमेशा छंटनी, संविदा भर्ती और कर्मचारियों की असुरक्षा को जन्म देती है। सरकारी कंपनियों और बैंकों में काम कर रहे लाखों कर्मचारियों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।

👉 कुल मिलाकर, सरकार का यह कदम “जनहित” नहीं बल्कि “निजी पूंजीपतियों के हित” को साधने वाला है। जनता से विश्वासघात कर, उनकी ही संपत्ति को बेचकर घाटा पूरा करने की नीति लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ छल है।


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