प्रदेश सरकार की इमेज चमकाने की जिम्मेदारी जिस सूचना विभाग पर है उसकी अपनी इमेज ही पूरी तरह तार-तार हो चुकी है। राज्य सूचना निदेशालय में इस समय लुटेरों का एक गिरोह सक्रिय है जो सरकार से प्राप्त भारी भरकम बजट को दीमक की तरह चट कर जा रहा है।
उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग विगत पांच सालों से निजी सम्पत्ति की तरह चलाया जा रहा। बे-खौफ लूट और संगठित भ्रष्टाचार का यहां साम्राज्य है लेकिन चूंकि मीडिया व पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग यहां से पाला-पोसा जाता है इसलिए इस विभाग की खबर लिखने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ती। अगर आप ने विभाग के संगठित चक्रव्यूह को अभिमन्यु की तरह तोड़ दिया और अंतिम द्वार भी पार कर गये तो यकीन मानिए कि आप कुछ ही समय में मारूति 800 से तीन करोड़ की मर्सडीज खरीद सकते हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं है अगर विभाग की आडिट जांच ईमानदारी से हो जाए तो आप के सामने अनेक चौंकाने वाले तथ्य आएंगे। इस विभाग का करोड़ों रूपए का बजट होता है और इसी बजट को हर साल एक आंतरिक संगठन दिल्ली से लेकर लखनऊ तक की तमाम एजंसियों के साथ मिलकर लूटता है। इन एजंसियों में शामिल होती हैं विज्ञापन की अलग-अलग एजेंसियां, एलईडी वैन चलाने वाली कंपनियां, बड़े अखबार, बड़े न्यूज चैनल्स..। अखिलेश सरकार में न्यूज चैनलों को “खबरों की कीमत के एवज में” सरकारी योजनाओं के वीडियो विज्ञापन बनाने और चलाने/चलवाने का जो धंधा आरंभ किया गया था वो आज तक वैसे ही चला आ रहा है। “खबरों की कीमत होती है” और उसी कीमत पर ऐड जारी होते हैं…यह खेल हर साल करोड़ों रूपए का होता है। इसके बाद एलईडी वैन और मोटा माल ..इसके भी अनेक रोचक किस्से हैं।… अखिलेश सरकार में स्कूटर और ट्रैक्टर के नंबरों तक पर एलईडी वैन चल गईं थीं और उनको करोड़ों का भुगतान भी हो गया था…उसके बाद सरकार बदली लेकिन बदला कुछ नहीं।
RTI लगाकर मेरे द्वारा इस संदर्भ में पूरी जानकारी जल्द ही मांगी जा रही है।
अगर आपके संपर्क अच्छे हैं तो आप सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से संपर्क करें…एक साल के भीतर ही आपकी तकदीर व तस्वीर बदल जाएगी। एक बड़ा फोटोग्राफर है। मुख्यमंत्रियों का करीबी रहा है पहले अखिलेश का भी प्रिय हुआ करता था। चूंकि ऊपर तक लिंक लाक है इसलिए पहले तो नियम विरुद्ध 17 लोगों के सूचीबद्धीकरण में महोदय शामिल हुए और जब सूचना विभाग बजट न होने का रोना रो रहा था उस समय 35 लाख की डाक्यूमेंट्री का काम चपेट गये। जरा भौंकाल देखिए आर ओ 15 मिनट का और फिल्म छह मिनट की…जब भुगतान पर आब्जेक्शन लगा तो बंदा चौड़े से आया…फाइल क्लीयर कराई और दिए गये आरओ के हिसाब से भुगतान ले गया। प्रोडक्शन हाउस के सूचीबद्धीकरण भी एक मजाक की तरह रहा। अभिरूचि के आधार पर प्रस्ताव मांगे गये। फर्मों/कंपनियों ने एक हजार रूपए जमा करके नियम व शर्तों का फार्म लिया। विधिवत् औपचारिकताएं पूरी कीं…। आभिरूचि के आधार पर जो प्रस्ताव मांगे गये उनकी शर्तों में कहीं भी पांच लाख रूपए की अर्नेस्ट मनी की कोई शर्त नहीं थी। जिस दिन टेंडर खोला गया उस दिन अचानक पांच लाख अर्नेस्ट मनी की शर्त जोड़ दी गई। खैर 91 लोगों ने पांच लाख जमा करके अपने को सूचीबद्ध करा लिया। अब एक नया खेल हुआ। जब सब कुछ फाइनल हो गया। विभाग ने जांच के उपरांत समस्त फर्मों को सूचीबद्ध भी कर लिया अचानक करीब छह माह बाद विभागीय योग्य अधिकारियों को लगभग ऐसी 40 फर्में पता चलीं जो तथाकथित रूप से वित्तीय शर्तें पूरी नहीं करती थीं। उन समस्त फर्मों को मेल और विभागीय पत्र द्वारा सूचित किया गया कि वे फिर से विगत तीन वित्तीय वर्षों का लेखा जोखा, इनकम टैक्स रिटर्न, जीएसटी विवरण दाखिल करें…फर्मों ने फिर से विवरण दाखिल कर दिया। मजेदार बात यह है कि जब विभाग ने उक्त 40 फर्मों को उपयुक्त पाया था तभी तो उन्हें सूचीबद्ध किया गया…फिर अचानक क्या सूझी? खैर, अब नया खेल देखिए…जब सारी टेंडर प्रक्रिया खत्म हो गई। सूचीबद्धता हो गई। सब फाइनल हो गया तो कुछ पावरफुल 17 अन्य कंपनियों/फर्मों को शामिल कराने का खेल हुआ और इसमें उस बड़का फोटोग्राफर की फर्म भी शामिल है।
सूचना विभाग के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग ने ऐसे-ऐसे खेल खेलें हैं कि अगर ईमानदार सरकार ईमानदारी से जांच कराए तो बहुत बड़ा खुलासा होगा। एक वर्मा नामक सूचना अधिकारी हैं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का काम देखते हैं। जिले से मुख्यालय लाया गया। सूचना विभाग के अलावा अनेक विभाग ऐसे हैं जो सूचना विभाग के माध्यम से ही अपने प्रमोशनल वीडियोज बनवाते हैं। इसके लिए नोडल अधिकारी होते हैं…ऐसी ही एक घटना होती है पुलिस विभाग की फिल्मों के साथ। एक फर्म को आर ओ जारी होता है उससे पहले नोडल अधिकारी ठीक-ठाक मांग करते हैं। मांग तय हो जाती है लेकिन जब तक आरओ बनता “राज साहेब” रिटायर हो जाते हैं। वर्मा साहेब आरओ जारी करने/करवाने का दो लाख तय करते हैं और भुगतान के बाद उनका दो लाख से सम्मान हो जाता है। जो कुछ विभाग में हो रहा है उसे विभाग के उच्चाधिकारियों को संज्ञान में लेना चाहिए और कार्यवाही करनी चाहिए।
विगत पांच सालों में उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग दरअसल देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता की कहानी बन चुका है। जहां एक पूरा संगठित और सशक्त तंत्र ठाठ से काम करता है, बे-खौफ होकर…निडर होकर…उसे न तो नियमों की परवाह है न कानून का डर है…ऐसा माहौल सूचना में पहले कभी नहीं… सालों साल से मलाईदार सीटों पर जम चुके खिलाड़ियों ने करोड़ों की सम्पत्ति खड़ी की है। अगर आयकर विभाग के अधिकारी यहां के अधिकारियों और कुछ खास कर्मचारियों की जांच करें तो उनके पैरों तले जमीन खिसक जाएगी। कोई मैरिज लान का मालिक है, कोई तीन से चार करोड़ के घर में रह रहा है, कोई विभाग में बैठे-बैठे अपने परिवार के करीबी सदस्य को संपादक बनकार संस्करणों के हिसाब से अखबार निकाल कर दोनों हाथों से माल लूट रहा है..कुछ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी/ अधिकारी लाखों रूपए की कारों में टहल रहा.. चारों ओर अकूत पैसा है। आयकर विभाग और भ्रष्टाचार निवारण संगठन अगर इस ओर नजर-ए-इनायत करें तो उसे बहुत कुछ मिलेगा। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान..जैसे राज्यों के सूचना विभागों ने विज्ञापन (इलेक्ट्रॉनिक/प्रिंट) में पारदर्शिता के लिए अपने विभाग के अधिकारियों को लेकर संवाद एजेंसियां बना रखी हैं। सबका एक साफ्टवेयर है और रोटेशन वाइज सबको विज्ञापन मिलते रहते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग इकलौता ऐसा विभाग है जो इस तरह की किसी भी व्यवस्था में यकीन नहीं करता है क्योंकि ऐसा होने से कमीशन के नाम पर जो करोड़ों की बंदरबांट होती है वह संभव नहीं हो सकेगी। इन एजेंसियों के बनाने से विभाग द्वारा प्रतिवर्ष जारी होने वाले करोड़ों रूपए के विज्ञापन पर 15 प्रतिशत जो कमीशन अभी ऐड एजेंसियां मिल-बैठकर डकार जाती हैं वह डकरई रूक जाएगी लेकिन एजेंसी बनने से लाभ सरकार और विभाग को होगा…वह करोड़ों रूपए का कमीशन विभाग के खाते में आता और सरकार का पैसा बचता। पहले एपीसोड में जिस फोटोग्राफर का जिक्र किया गया है उसके संदर्भ में विभाग के ही अनेक अधिकारी बताते हैं कि वह जिस तरह से भुगतान और काम के लिए बातचीत करता है वह निहायत ही अपमानजनक होती है। एक घटना है 2013 की, पीसीएस से आईएएस बने एक मृदुभाषी निदेशक सूचना हुआ करते थे जो कि अब रिटायर हो ग्रे हैं और अपर निदेशक एक पीसीएस अधिकारी थे जो अब आईएएस हैं और मुख्य सचिव के स्टाफ आफीसर भी रह चुके हैं, सूचना विभाग के फिल्म व इलेक्ट्रॉनिक विभाग के एक अधिकारी थे … बाजपेई जी। श्री बाजपेई भी निहायत शरीफ इंसान थे और उनके बड़े भाई उत्तर प्रदेश के चीफ सिक्रेटरी भी रह चुके हैं…ये महोदय तत्कालीन मुख्यमंत्री और किसी आयोजन से संबंधित प्रति फोटो के हजारों रूपए मांग रहे थे। आब्जेक्शन लगा तो बंदा हत्थे से उखड़ गया और अंततः वही रेट लेकर गया जो उसने प्रति फोटो कोड़ किया था। पुरानी फाइलें अगर निकाली जाएं तो इसके कारनामे नजर आएंगे। सूचना विभाग के भीतर क्या क्या किस्से-कहानियां चल रही हैं एक उदाहरण कुछ महीने पुराना है। एक क्लाइंट ने एक अधिकारी को एक महंगा LED स्मार्ट टीवी दिया। इस टीवी पर अधिकार को लेकर दो वरिष्ठ अधिकारियों में जूतम-पैजार तक की नौबत आ गई। मामला ऊपर तक पहुंचा तो दोनों अधिकारियों की क्लास लगी…ये LED TV अब किस अधिकारी के पास है या इस टीवी सेट का क्या हुआ ये मैं नहीं बता सकता। ये बानगी है कि इस विभाग को विगत पांच सालों में क्या बनाकर रख दिया गया है।
एक सिंह साहेब हैं। विगत 14 साल से विज्ञापन में हैं। वह खुद ही क्लर्क हैं और खुद ही प्रशासनिक अधिकारी भी हैं। डिस्प्ले का काम खुद ही देख लेते हैं और फाइलों पर दो तरह के हस्ताक्षर करते हैं एक में पूरा नाम सहित सिंह लगाते हैं और दूसरे में केवल नाम लिखते हैं। जबकि विभाग में अनेक प्रशासनिक अधिकारी हैं। एक रिटायर्ड कर्मचारी हैं बाजपेई जी। रिटायरमेंट के बाद 5 साल विज्ञापन में जमें हैं। स्वतंत्रता सेनानियों को देने वाले ताम्रपत्र जब चोरी हुए थे तो उनका नाम आया था।वीजलेंस जांच भी हुई लेकिन साहेब जमें हैं तो जमे हैं। एक सूचना अधिकारी और हैं। बाहर के जिले से लखनऊ बुलाए गये। साहेब बैठते हैं संयुक्त निदेशक के कमरे में। जो संयुक्त निदेशक स्तर के अधिकारी हैं वो लगभग खाली बैठे हैं ये साहब भी विज्ञापन का सारा काम देख रहे हैं। एक और सूचना अधिकारी हैं वर्मा जी…धड़ल्ले से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम कर रहे हैं जबकि विभाग की हालत यह है की 60% जिले सूचना अधिकारी विहीन हैं।
सूचना विभाग में कुछ संविदा व रिटायर कर्मचारियों का इतना सशक्त जाल है कि उनके किस्से किसी के भी होश उड़ा दे। ये सब 6 से 9 साल तक एक ही जगह पर जमें हैं। व्यवस्था में एक अन्य सिंह साहेब हैं। कनिष्ठ लिपिक से यूडीए हुए। विभाग के 32 प्रधान सहायकों को किनारे बैठाकर प्रेस अतिथि, विभागीय वाहनों के लिए पेट्रोल व डीजल खरीद, कम्प्यूटर खरीद व मेंटीनेंस से लेकर खरीद-फरोख्त सब इनके भरोसे है। कम्प्यूटर मेंटीनेंस सालाना 23 लाख रूपए का है और मजेदार बात यह है कि मेंटीनेंस का काम भी इन्हीं के जानने वाले कर रहे हैं। जेनरेटर कभी-कभी चलता है लेकिन लगभग 100 लीटर डीजल प्रतिदिन खरीदा जा रहा है? निकासी में एक यादव जी हैं। 20 साल पहले चतुर्थ श्रेणी में दैनिक वेतन पर आए थे। अब तक निकासी में हैं। साहेब एक अखबार 4 संस्करणों में निकालते हैं। यहीं पर एक ओझा जी हैं उनके छह अखबार हैं..टेंडर के विज्ञापन से लेकर बहुत कुछ मिल रहा है। टेंडर के विज्ञापन का खेल मंडलीय स्त्री पर छोटे अखबारों के साथ जारी है। एक और कर्मचारी हैं ढाई से तीन करोड़ का कूरियर का काम डकार जाते हैं। जबकि दो प्रधान सहायक यहां बैठे मख्खी मारा करते हैं। इस कुरियर का काम देखने वाले साहेब के दो-दो महंगी गाड़ियां हैं। विभाग लाखों रुपए के एसी खरीदता है लेकिन ये एक साल से तीन सालों में कहां चले जाते हैं। पूरा विभाग फिलहाल एक तिलिस्म की तरह हो गया है। माननीय मुख्यमंत्री जी के संज्ञान में यह सारा मकड़जाल नहीं है। ईमानदार और कर्मठ मुख्यमंत्री की जानकारी में जिस दिन भी यह जानकारी आई विभाग में चल रहा करोड़ों का खेल उसी दिन खत्म हो जाएगा।
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